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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, February 15, 2008. हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था. हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था. आप आते थे मगर कोई इनाँगीर भी था. तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला. उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था. तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ. कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था. हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही. Posted by Nishant Kumar. भी था. यह क़िस&#...सर्...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, February 15, 2008. है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और. है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और. करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और. या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात. दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और. आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद. है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और. Posted by Nishant Kumar. Bahut dilkash gazal hai galib ki ye. सुबह क&...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, December 14, 2007. फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़. फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़. गर्म बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है. हो रहा है जहाँ में अँधेर. ज़ुल्फ़ की फिर सरिश्तादारी है. फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल. एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है. फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब. अश्क़बारी का हुक्मज़ारी है. दिल-ओ-मिज़श्माँ का जो मुक़दमा था. आज फिर उस की रूबक़ारी है. Posted by Nishant Kumar. गुङगुङì...दरवा...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Sunday, December 16, 2007. रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए. रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए. धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए. सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी. थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए. रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम. बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए. कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर. पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का. Posted by Nishant Kumar. सुबह का झ...यह कì...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Tuesday, January 15, 2008. ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं. ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं. कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं. वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं. नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को. हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं. Posted by Nishant Kumar. Labels: देखते हैं. Dr Dinesh J. Karia. बल्ल...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Tuesday, December 11, 2007. न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही. न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही. इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही. ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है. शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही. मय परस्ताँ ख़ूम-ए-मय मूंह से लगाये ही बने. एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही. नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा. Posted by Nishant Kumar. बल्ली मार&#...सामनí...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): फिर इस अंदाज़ से बहार आई
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, February 15, 2008. फिर इस अंदाज़ से बहार आई. फिर इस अंदाज़ से बहार आई. के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई. देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक. इस को कहते हैं आलम-आराई. के ज़मीं हो गई है सर ता सर. रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई. सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली. बन गया रू-ए-आब पर काई. सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये. चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई. Posted by Nishant Kumar. November 23, 2008 at 1:03 AM.
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, December 14, 2007. फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है. फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है. सीना ज़ोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है. फिर जिगर खोदने लगा नाख़ून. आमद-ए-फ़स्ल-ए-लालाकारी है. क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़. फिर वही पर्दा-ए-अम्मारी है. चश्म-ए-दल्लल-ए-जिन्स-ए-रुसवाई. दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्बारी है. वही सदरंग नाला फ़र्साई. वही सदगूना अश्क़बारी है. Posted by Nishant Kumar. उन्ही...बल्...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): क्योंकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Friday, December 28, 2007. क्योंकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़. क्यूंकर उस बुत से रखूं जान `अज़ीज़. क्या नहीं है मुझे ईमान `अज़ीज़. दिल से निक्ला पह न निक्ला दिल से. है तिरे तीर का पैकान `अज़ीज़. ताब लाए ही बनेगी ग़ालिब. वाक़ि`अह सख़्त है और जान `अज़ीज़. ईमान: Faith, religion, creed;. वाक़ि`अह : Event, occurence, incident;. Posted by Nishant Kumar. Labels: अज़ीज़. चूङी वा...अपनी ब...
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी): मैं उंहें छेड़ूँ और कुछ न कहें
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DIVAN - E - GHALIB (मिर्ज़ा गालिब की शायरी). The Urdu Ghazals of Mirza Asadullah Kha "GHALIB" (मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू गजले). Wednesday, December 12, 2007. मैं उंहें छेड़ूँ और कुछ न कहें. मैं उंहें छेड़ूँ और कुछ न कहें. चल निकलते जो मै पिये होते. क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो. काश के तुम मेरे लिये होते. मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था. दिल भी या रब कई दिये होते. आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'. कोई दिन और भी जिये होते. Posted by Nishant Kumar. Labels: होते. Subscribe to: Post Comments (Atom). अपनी बुझत...इसी...